धरा को चीरकर तुने, कब्र खुद की बनाई है

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धरा को चीरकर तुमने,
कबर खुद की बनाई है !

थी बख्शी नेमते जन्नत की,
उस मालिक ने जो हमको,
दिए फल फूल वन नदियॉ,
गगन ऊचे शिखर हमको,
नही रक्खा जो संजोकर,
धरा फिर से थर्राई है,
धरा को चीरकर तुमने,
कबर खुद की बनाई है !

रसातल क्या धरातल क्या,
आकाश नापा है,
कुठाराघात से बन्दे,
तेरा मालिक भि कॉपा है,
है तीनो लोक मे बन्दे,
उधम तूने मचाई है,
धरा को चीरकर तूने,
कबर खुद की बनाई है !

घरोंदे तोड वनचर के,
बता क्या तूने है पाया,
तेरी करतूत से बन्दे,
ये पापी जलजला आया,
संभल जा मान जा बन्दे,
वरन आगे तबाही है,
धरा को चीरकर तूने,
कबर खुद की बनाई है !

यहॉ तेरा वहॉ तेरा,
है ये सारा जहॉ तेरा,
बनाया था उस मालिक ने,
इसे हर जीव का डेरा,
वो शादी मौत क्या होगी,
जो तॉडव की सगाई है,
धरा को चीरकर तमने,
कबर खुद की बनाई है !

नदी स्वछन्द बहती थी,
दिया तुमने नही बहने,
उन्हे बॉधो मे बॉधा है,
अरे तेरे ये क्या कहने,
नदी तट तक नही छोडे,
वहॉ बस्ती बसाई है,
धरा को चीरकर तुमने,
कबर खुद की बनाई है !
कवि..सुरेन्द्र सिहं रावत
जीवन की मुस्काम…!

Poem By: Surender Singh Rawat

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